मेंथा की खेती कैसे करें | Mentha Ki Kheti Kaise Kare

by | Mentha Kheti

मेंथा की खेती कैसे करें Mentha Ki Kheti Kaise Kare: हालांकि व्यापारिक जगत में जापानी मेंथा को ही मेन्था अथवा मिन्ट के नाम से जाना जाता है परन्तु तकनीकी रूप से मेन्था शब्द पोदीने के एक समूह का प्रतिनिधित्व करता है जिसमें मेंथा की कई प्रजातियाँ सम्मिलित हैं, जैसे जापानी पोदीना (mentha arvensis) पिपर मिन्ट (Mentha piperita), बमिोट मिन्ट(Mentha citrata) आदि। इस प्रकार मेन्था के समूह में कई प्रजातियाँ सम्मिलित हैं जिनमें से एक प्रजाति जापानी पोदीना भी है।

वर्तमान में विश्व भर में जापानी पोदीना के उत्पादन के क्षेत्र में भारत दूसरे स्थान पर (प्रथम स्थान चीन को प्राप्त है) जबकि पिपर मिन्ट तथा स्पीयर मिन्ट के उत्पादन में संयुक्त राज्य अमेरिका को प्रथम स्थान प्राप्त है। वर्तमान में उत्तर प्रदेश, पंजाब तथा हरियाणा आदि इसके प्रमुख उत्पादक राज्य हैं।इसके साथ-साथ बिहार राज्य में भी मेंथा की खेती प्रारम्भ हो चुकी है। बिहार में बढ़ते हुए सुगंधित फसलों में मेन्था की खेती वृहत रूप से अपनाई जा रही है क्योंकि परम्परागत खेती ज्यादा लाभकारी न होने के कारण किसानों का ध्यान मेन्था की खेती की ओर खींचता जा रहा है। मेंथा की खेती रबी फसल के उपरान्त बाकी बचे खाली समय में खेतों में उपजायी जा रही है। इस तरह किसानों को रबी फसल के उपरान्त अतिरिक्त आमदनी हासिल करने का अच्छा मौका मिल रहा है।

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उपयुक्त उपजाऊ क्षेत्र में सामान्य मौसम, अच्छी सुविधाएं एवं आसानी से श्रमिक उपलब्ध होने के कारण प्रदेश में मेन्था की खेती होने की अपार सम्भावनाएँ प्रतीत हो रही है। प्रदेश में अपेक्षाकृत कम रासायनिक खादों एवं कीट रसायन का उपयोग करना मेन्था की व्यवसायिक खेती के लिए अच्छा माना जाता है। हालाँकि बिहार में सुगंधित पौधों की खेती अभी प्रारम्भिक अवस्था में हैं फिर भी पिछले कुछ वर्षों में मेन्था की व्यावसायिक खेती कई जिलों में वृहत स्तर पर अपनायी जा रही है। बढ़ती हुई मेंथा की खेती एवं इससे प्राप्त तेल एवं अन्य अवयव देश को अंतर्राष्ट्रीय बाजार में अपना कब्जा एवं दबदबा बनाए रखने की ओर अग्रसर है।

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मेंथा की खेती की विधि (Mentha ki kheti)

मेंथा की खेती एक एकवर्षीय फसल के रूप में की जाती है तथा एक वर्ष में इसकी दो से तीन कटाईयाँ ली जा सकती है। सीमेप, लखनऊ द्वारा भारतवर्ष के विभिन्न भागों में मेंथा की खेती को प्रोत्साहित करने की दिशा में काफी कार्य किया गया है।

उपयुक्त जलवायु

मेंथा की खेती के लिए समशीतोष्ण जलवायु उपयुक्त होती है। वैसे । वैसे मेंथा की खेती उष्ण एवं उपोष्ण जलवायु में भी सफलतापूर्वक की जा सकती है। फसल की अच्छी बढ़वार के लिए दिन का तापमान 30°C एवं रात का तापमान 18°C होना चाहिए। औसत वार्षिक वर्षा 200-250 से.मी. होनी चाहिए। वार्षिक वर्षा की कमी को नहर अथवा ट्यूबेल के पानी से सिंचाई करके पूरा किया जा सकता है। बिहार की जलवायु मेंथा की खेती के लिए उपयुक्त है।

मेंथा के लिए उपयुक्त भूमि अथवा मिट्टी

समतल, अच्छे जल निकासवाली भूमि जिसकी मिट्टी बलुई दोमट हो तथा जिसमें जीवांशों की प्रचुरता हो एवं जिसका पी.एच. 0-7 मान 6.0-7.5 हो, जापानी पुदीना की खेती के लिए अच्छी होती है। बिहार की सामान्य पी.एच. वाली लगभग सभी प्रकार की मिट्टियों में मेंथा की खेती सफलतापूर्वक की जा सकती है यदि पानी का उचित प्रबन्ध हो क्योंकि जापानी पोदीना एक शाकीय फसल है। अतः अपनी अच्छी बढ़त के लिए इसे पोषक तत्वों की काफी अधिक आवश्यकता होती है। भारी एवं चिकनी मृदाओं में इन पौधों के विकास में कठिनाईयाँ होती है। आलू उगाए जाने वाले खेतों में मेन्था पौधों की काफी अच्छी बढ़त होती है। इन खेतों में जल जमाव की संभावना कम रहती है।

मेंथा की फसल की अवधि

यह एक एकवर्षीय फसल है तथा एक वर्ष के दौरान इसकी दो से तीन कटाईयाँ ली जा सकती है। कई क्षेत्रों में इसकी दो ही कटाईयाँ लेते हैं। इसी प्रकार कई क्षेत्रों में इसकी केवल एक ही कटाई ली जाती है, विशेषतया ऐसे संदर्भो में जहाँ मुख्य उद्देश्य अगली फसल के लिए बीज अथवा सकर्स प्राप्त करने का हो। इस प्रकार अपनी-अपनी सुविधानुसार एक, दो अथवा तीन कटाईयाँ ही लेते हैं। तीन कटाईयों के उपरान्त पौधे इतने घने हो जाते हैं कि उन्हें उखाड़ना अनिवार्य ही हो जाता है अन्यथा उत्पादन नहीं मिल पाता।

मेंथा की उन्नतशील प्रजातियाँ

मेंथा की खेती के लिए कोसी, हिमालय, कुशल, गोमती, शिवालिक अच्छी प्रजातियाँ हैं। इन प्रजातियों में कुशल तेजी से बढ़ती है और इसका उत्पादन भी दूसरी प्रजातियों से लगभग दुगुना होता है। वस्तुतः मेंथा की खेती में काफी अधिक सकर्स का उत्पादन होता है। एक अनुमान के अनुसार प्रथम वर्ष में यदि एक विवंटल सकरी लगाई जाए तो एक वर्ष के उपरान्त इससे 60 गुना ज्यादा सकर्स तैयार हो जाती है। इस प्रकार आगामी फसलों के लिए सकर्स किसान के अपने ही खेत में तैयार हो जाता है अतः उसे अगली फसल हेतु बीज खरीदना नहीं पड़ता। यही वजह है कि अधिकांशतः किसान चाहकर भी अपनी फसल की पुरानी प्रजाति नहीं बदल पाते जिसके फलस्वरूप वे उन्नतशील प्रजाति से प्राप्त हो सकने वाले ज्यादा उत्पादन तथा अन्य लाभों से वंचित रह जाते हैं।

मेंथा का प्रवर्धन

इसका प्रवर्धन प्रायः जड़ भाग द्वारा किया जाता है जिसे सकर्स कहते हैं। 5-7 से.मी. लम्बा सकर्स 4-5 क्विंटल प्रति हैक्टेयर की दर से जरूरी होता है। प्रत्येक सकर्स के टुकड़े में कम से कम एक आँख (नोड) होनी चाहिए। अच्छे सकर्स मांसल, रसीले एवं सफेद होते हैं तथा सकर्स रोगमुक्त होने चाहिए। पहले से लगाई गई फसल को उखाड़कर उसकी निचली हिस्से से सकर्स प्राप्त करते हैं। एक एकड़ में लगाने के लिए मेंथा की लगभग एक क्विंटल सकर्स की आवश्यकता होती है। सकर्स की दर 10 रू. प्रति कि.ग्रा. से लेकर 25 रू. प्रति कि.ग्रा. तक हो सकती है।

मेंथा की बिजाई का उपयुक्त समय

वैसे तो मेंथा की बिजाई कभी भी (अधिक ठंड को छोड़कर) की जा सकती है परन्तु इसका सर्वाधिक उपयुक्त समय वह रहता है जब सर्दी का मौसम लगभग समाप्त हो रहा हो तथा गर्मी का मौसम प्रारंभ हो रहा है। अतः देश के अधिकांश मैदानी क्षेत्रों तथा बिहार के क्षेत्रों में मध्य जनवरी से मध्य फरवरी तक का समय इसकी बुआई के लिए सर्वोत्तम है परन्तु जिन क्षेत्रों में रबी की फसल लगाई गई हो वहाँ उनकी कटाई के बाद 30 मार्च तक जापानी पुदीना की बुआई की जा सकती है।

मेंथा की खेती कैसे करें mentha ki kheti kaise karen

किसान भाई मेंथा की खेती करके लाखों कमा रहे हैं.

मेंथा के लिए खेत की तैयारी

इसकी बिजाई करने से पूर्व खेत को अच्छी प्रकार तैयार करना आवश्यक होता है। मिट्टी पलटनेवाली हल से 2-3 बार अच्छी जुताई करके मिट्टी भुरभुरी कर लें। अंतिम जुताई से पहले 15-20 टन सड़ी गोबर की खाद या कम्पोस्ट डालकर मिट्टी में अच्छी तरह मिला दें। दीमक एवं सूक्षकृमि की बचाव के लिए 10 क्विंटल प्रति हैक्टेयर की दर से नीम की खल्ली खेतों में मिलाई जाती है। यदि सिंचाई की व्यवस्था फ्लड इरीगेशन से करनी हो तो खेत तैयार के उपरान्त खेत की छोटी-छोटी क्यारियों में विभाजित कर दें, ताकि सिंचाई देने में आसानी हो।

मेंथा की फसल में खरपतवार काफी आते हैं अतः इन खरपतवारों से निपटने के लिए बिजाई से पूर्व किन्हीं प्री-इमर्जेन्स वाले खरपतवार नाशकों को उपयोग किया जा सकता है, जैसे ऑक्सीफ्लुरोफेन 400 मि.ली. मात्रा 20-20 कि.ग्रा. बालू रेत में मिलाकर खेत में छिड़की जा सकती है, इस तरह हर वर्ष अच्छी तरह से सड़ी हुई कम्पोस्ट, खाद, नीम की खल्ली एवं वर्मी कम्पोस्ट खेत में प्रति हैक्टेयर की दर से मिलाया जाना उपयुक्त रहता है। यथासम्भव जापानी पुदीना की खेती में किसी रासायनिक उर्वरक का प्रयोग नहीं करना चाहिए।

मेंथा की बिजाई की विधि

मेंथा की बुआई दो विधियों द्वारा की जाती हैं

  1. नर्सरी द्वारा
  2. मुख्य खेत में सीधे बुआई द्वारा।

नर्सरी द्वारा

सबसे पहले सुविधानुसार 5×10 फीट की क्यारियाँ बनाते हैं। इन क्यारियों के किनारे को लगभग एक फीट ऊँचा रखते हैं। इन क्यारियों के खरपतवार साफ कर लें। प्रत्येक क्यारी में 50 कि.ग्रा. गोबर की सड़ी खाद डालकर अच्छी तरह जोतकर मिट्टी भुरभुरी बनायें। तैयार क्यारियों में धान की क्यारी की तरह ही पानी से भर दें तथा जापानी पोदीना की कटी हुई सकर्स को नर्सरी में बिखेर दें। सकर्स को बिखेरने से पहले उन्हें साफकर और रातभर गोमुत्र (एक भाग गोमुत्र तथा दस भाग पानी) में डुबोकर रखते हैं या काइँडाजिम के 5 ली. घोल (0.15 प्रतिशत) से 40 कि.ग्रा. सकर्स को उपचार किया जा सकता है। 2-3 दिन के अन्तराल पर हल्की सिंचाई करते हैं। सिंचाई फव्वारे या स्प्रिंकलर्स से करें लगभग एक से डेढ़ सप्ताह के अन्दर सकर्स उगने शुरू हो जाते हैं। 40-45 दिन के बाद जब 4 से 5 पत्ते आ जाते हैं तब पौधों को नर्सरी से उखाड़कर खेत में रोप दिया जाता है। पहले से तैयार की गई खेत में रात में एक खुला पानी छोड़ देते हैं, ताकि सुबह तक खेत अच्छी तरह गीला हो जाये। इससे सुविधा यह होती है कि केवल हाथ की उँगलियों के दबाव से ही बिचड़ों को खेत में रोपित किया जाता है। पौधों को 20×35 से.मी. की दूरी पर लगाना चाहिए। इस विधि से बिजाई करने पर लगभग 75-100 कि.ग्रा. सकर्स की आवश्यकता होती है। नर्सरी विधि से रोपाई करने से लाभ

  • सकर्स की मात्रा कम लगती है एवं पौध रोपण पर खर्च में कटौती।
  • रबी की फसल के उपरान्त किसानों को मेन्था की फसल से अतिरिक्ति आमदनी।
  • खरपतवार नियंत्रण पर कम खर्च।

मुख्य खेत में सीधे बुआई

इस विधि में नर्सरी में पौधों को तैयार करने की आवश्यकता नहीं होती है। सकर्स को सीधे मुख्य खेत में रोपाई कर दी जाती है। इस विधि में खेत को तैयार कर लेने के बाद देशी हल से मक्का की बुआई की तरह सकर्स को सीधे कूड़े में बुआई की जाती है। बुआई के बाद हल्की सिंचाई करें। यह शार्ट कर विधि है परन्तु यह विधि उपयुक्त नहीं है क्योंकि एक तो फसल के उगने के साथ हीं खरपतवार भी उग आते हैं जिनके नियंत्रण में काफी खर्च आता है और दूसरा खेत में अधिक गैप रह जाने की संभावना होती है क्योंकि कुछ सकर्स में उगाव नहीं भी हो सकता है इस विधि से बुआई के लिए एक से दो क्विंटल सकर्स की रोपाई वैसे हीं करते हैं जैसे धान की रोपाई करते हैं। पर खेत को केवल गीला रखते हैं। पानी लगाकर बुआई करने से फायदा यह रहता है कि सकर्स का उगाव अधिकं होता है, और खेत खाली नहीं रहता है। मुख्य खेत में पौधों को 60X45 से.मी. की दूरी पर लगाया जाना उपयुक्त रहता है।

मेंथा की सिंचाई कैसे करें

इसकी अच्छी बढ़त एवं उनकी अच्छी फसल प्राप्ति के लिए पर्याप्त सिंचाई की जरूरत होती है। अतः जहाँ सिंचाई की उचित व्यवस्था न हो वहाँ यह फसल न लगायें। खेत में हमेशा नमी बनाये रखने की आवश्यकता होती है इसलिए जल्द एवं हल्की सिंचाई अत्यंत आवश्यक है। मार्च में 10-15 दिन के अन्तर से, अप्रैल-जून में 6-8 दिन के अन्तर से तथा सर्दियों में 20-25 दिन पर हल्की सिंचाई करें। ड्रिप सिंचाई पद्धति द्वारा सिंचाई करने से समय के साथ-साथ पानी की भी बचत होती है। फसल की प्रत्येक कटाई के बाद सिंचाई अवश्य करें। खेतों में नमी की कमी होने पर फसल की वृद्धि रूक सकती है।

मेंथा के लिए कौन सी खाद एवं उर्वरक डालें

सामान्यतया 150 कि.ग्रा. नाइट्रोजन, 60 कि.ग्रा. फास्फोरस तथा 40 कि.ग्रा. पोटाश प्रति है. या 60 कि.ग्रा. नाइट्रोजन, 25 कि.ग्रा. फास्फोरस तथा 16 कि.ग्रा. पोटाश प्रति एकड़ प्रति वर्ष दिये जाने की अनुशंसा की जाती है इनमें से फास्फोरस एवं पोटाश की पूरी मात्रा तथा नाइट्रोजन की एक तिहाई मात्रा सकर्स रोपाई के पहले दी जानी चाहिए। नाइट्रोजन की शेष मात्रा प्रत्येक कटाई के बाद 2 से 3 बार में देना चाहिए। यदि खेत की तैयारी के समय 15-20 टन सड़ी हुई गोबर की खाद या कम्पोस्ट डाली गई हो तो उर्वरकों की अतिरिक्त मात्रा देने की आवश्यकता नहीं होती है।

मेंथा के साथ खरपतवार नियंत्रण

खरपतवार पुदीना की बढ़त को तो रोकते ही हैं साथ ही पुदीने के तेल में अनैच्छिक बदबू उत्पन्न कर उसकी गुणवत्ता को प्रभावित करते हैं, इसलिए खरपतवार का नियंत्रण जरूरी है। खरपतवारों का नियंत्रण हाथ से निराई-गुड़ाई द्वारा तथा खरपतवारनाशी दवा के उपयोग से किया जा सकता है। अच्छे नियंत्रण के लिए कारमेक्स 80 डब्ल्यू.पी. (डाइयरॉन) 700 ग्राम प्रति है, की दर से 600-700 ली. पानी में घोल कर फसल के जमाव से पहले छिड़काव करें और फिर 30-40 दिन बाद हाथ से निराई करें। इसी तरह दूसरी कटाई के एक महीना बाद भी हाथ से ही एक निराई-गुड़ाई कर दें।

मेंथा के प्रमुख रोग तथा कीट कौन से हैं

इस फसल पर लगने वाले प्रमुख कीट हैं : सेमीलूपर सूंडी, रोयेंदार सूंडी एवं जालीदार कीट हैं जिनमें सर्वाधिक नुकसान रोयेंदार सूंडी से होती है जो कि पत्तों के हरे उत्तकों को खाकर इन्हें कागज की तरह जालीदार बना देती हैं जिससे फसल को काफी हानि होती है। इसके रोकथाम के लिए इन्डोसल्फान या क्विनॉलफास के 150 से 200 मि.ली. प्रति एकड़ या 400-500 मि.ली. प्रति है. की दर से घोल बनाकर छिड़काव करना चाहिए। सेमीलूपर सूंडी तथा जालीदार कीट के रोकथाम के लिए मॉलाथियान 50 ई.सी. का 300-400 मि.ली. प्रति है. की दर से छिड़काव करें। कभी-कभी इस फसल पर सूत्रकृमियों का भी आक्रमण हो जाता है जिससे सकर्स में गाँठे बन जाती हैं, जड़े फूल जाती है तथा जड़ों पर लाल धारियाँ बन जाती है। पौधा पीला एवं बौना हो जाता है। इसकी रोकथाम के लिए खेत की तैयारी के समय ही 5-7 क्विंटल नीम की खल्ली प्रति है. की दर से मिट्टी में मिला दें।

मेंथा के लिए फसल-चक्र

मेंथा को भी चावल, गेहूँ, सरसों, हल्दी, आलू आदि के साथ फसल-चक्र बनाकर लगाने की सलाह दी जाती है जैसे धान-आलू-पुदीना, धान-पुदीना, धान-सरसों-पुदीना इत्यादि।

मेंथा की फसल की कटाई

जापानी पुदीना एकवर्षीय फसल है और एक वर्ष के दौरान तीन कटाईयाँ ली जा सकती है। इस फसल की पहली कटाई 100-120 दिन के उपरान्त पौधों पर हल्के सफेद-जामुनी रंग के फूल दिखाई दें अर्थात् जब 60-70 प्रतिशत पौधों में फूल आ जाते हैं। पौधों की कटाई भूमि सतह से 6-8 से.मी. की ऊँचाई से करते हैं। दूसरी कटाई 70-80 दिन बाद तथा तीसरी कटाई पुनः 70-80 दिन बाद करते हैं। तीसरी कटाई के बाद पौधों का विस्तार नहीं करना चाहिए। फसल की कटाई चमकीली धूप में दोपहर के समय तेज धारदार हसुये से करें। फसल काटने के बाद कम से कम 6 घंटे खेत में हीं पड़े रहने दें, ताकि अतिरिक्त नमी सूख जाये। वैसे फसल काटने के 6 घंटे से तीन दिन के भीतर आसवन करके तेल निकाल लेना चाहिए।

मेंथा तेल निकालने की विधि

जापानी पुदीना की खेती इसकी पत्तियों से तेल प्राप्त करने के लिए की जाती है। पत्तियों से तेल आसवन विधि से तैयार किया जाता है। प्रायः किसान लागत एवं सुविधा को देखते हुए वाष्पन विधि के अनुसार तेल हासिल करते हैं। इस विधि से चलने वाले आसवन संयंत्र कम लात में बनाए जाते हैं तथा किसान खेत में ही संयंत्र में ही संयंत्र स्थापित करते हैं ताकि कच्चा माल को ढोने की लागत से बचाया जाये एवं तेल की गुणवत्ता को बरकरार रखा जाये। ढेर में रखने से पत्तियों का सड़ना शुरू हो जाता है एवं गर्मी निकलने से तेल में कमी आ जाती है इन सभी कारणों का देखते हुए ज्यादातर किसान खेत में ही संयंत्र स्थापित करना उपयुक्त समझते हैं।

वाष्प आसवन विधि

आसवन के लिए वाष्प आसवन विधि सर्वाधिक उपयुक्त होती है, परन्तु ये काफी महँगी पड़ती है।

मेंथा तेल का उपयोग

मेन्था के तेल से भिन्न-भिन्न प्रकार के अवयव, जैसे मेन्थाल, मेन्थाइल एसीटेट मेन्थॉन प्राप्त किया जाता है। इन अवयवों एवं तेल का उपयोग औषधीय, च्युईगम, टॉफी एवं कैंडी बनाने में प्रयुक्त होते हैं। तेल का उपयोग खाँसी की दवाएँ, खुजली की दवाएँ, कण्डोमस सिगरेट आदि में भी किया जाता है। मेन्था फ्लेक्स, मेन्था क्रिस्टल का उपयोग टूथपेस्ट, पान मसाले, बाम, शैम्पू, बबलगम, आफ्टर सेव लोशन आदि में उपयोग होता है।

मेंथा के तेल की उपज

जापानी पुदीना से लगभग 250-300 कि.ग्रा. तेल प्रति है. प्राप्त होता है। प्राप्त होने वाले तेल की मात्रा कई बातों पर भी निर्भर करती है जैसे उगाई गई प्रजाति, फसल की वृद्धि, फसल की कटाई का समय, प्रयुक्त किया गया आसवन संयंत्र इत्यादि। फिर भी शाक की तुलना में 0.5-2 प्रतिशत तक तेल प्राप्त हो सकता है।

मेंथा के तेल का भण्डारण कैसे करें

एल्यूमिनियम या पोलीपैक के डिब्बों या कनस्टरों का उपयोग तेल रखने के लिए किया जाता है। तेल डब्बा में पूरा भरा होना चाहिए। डब्बा खाली रहने पर उसकी हवा का तेल की गुणवत्ता पर खराब असर पड़ता है। यदि तेल को अधिक दिनों तक सुरक्षित रखना हो तो सोडियम मेटाबाइसल्फाइड 2 ग्राम प्रति ली. तेल की दर से भण्डारित तेल में डालें।

मेंथा से कितनी कमाई होती है

यदि वर्ष भर में जापानी पोदीना की तीन कटाइयाँ ली जायें तथा तेल की बिक्री दर 300 रू. प्रति कि.ग्रा. मानी जाए तो किसान को एक एकड़ से लगभग 30,000 रू. की प्राप्तियाँ होती हैं। इनमें से यदि कुल खर्च हटा दिया जाये तो प्रति एकड़ 18-20,000 रू. का शुद्ध लाभ कमाया जा सकता है। तेल की बिक्री के साथ-साथ इसके पत्तों से प्राप्त होनेवाली खाद भी उपयोगी होती है, जिससे आगामी फसलों में खाद से सम्बन्धित होने वाले खर्च को कम किया जा सकता है।

इसी प्रकार एक वर्ष की खेती के उपरान्त किसान को जापानी पोदीना के 40-50 क्विंटल सकर्स भी प्राप्त होंगें जिन्हें बेचकर अतिरिक्त लाभ भी कमाया जा सकता है। उपरोक्तानुसार देखा जा सकता है कि जापानी पोदीना काफी उपयोगी फसल है। विशेष रूप से इसलिए भी क्योंकि मेंथा की खेती आसान है, इसके बीज पर ज्यादा खर्च नहीं होता, मध्य भारत की जलवायु इसके लिए काफी अनुकूल है, इसका बाजार काफी विस्तृत है, इसे पशुओं से कोई नुकसान नहीं होता तथा प्राकृतिक आपदाओं का इस पर कोई विशेष असर नहीं होता। अतः जिन क्षेत्रों में सिंचाई की पर्याप्त व्यवस्था हो, वहाँ के किसानों के लिए जापानी पोदीनों की खेती काफी अधिक लाभकारी है।

मेरी सलाह

जैसा की आप लोगों ने ऊपर जाना कि मेंथा की खेती कैसे करें (mentha ki kheti kaise kare). मेरे हिसाब से आपको यह लेख पसंद आया होगा। यदि आप पहले से ही मेंथा की खेती करते आ रहे हैं तो आप इसे नए तरीके और सावधानी पूर्वक करके और अच्छा मुनाफा ले सकते हैं। यदि आप पहली बार मेंथा की खेती करेंगे तो इस लेख को अवश्य अच्छी तरह से पढ़ लें, आपको इससे अत्यंत लाभ प्राप्त होगा।

मेरे किसान भाइयों इस वेबसाइट पर आपको मेंथा से जुडी हर तरह की जानकारी मिलेगी। यदि आप भी अपने लेख को यहाँ भेजना चाहते हैं और अपने विचार प्रकट करना चाहते हैं तो आप अपने अनुभव हमें [email protected] पर भेजे आपके अनुभवों को इस वेबसाइट पर दिखाया जायेगा.

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